यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥27॥
यत्-जो कुछ; करोषि-करते हो; यत्-जो भी; अश्नासि-खाते हो; यत्-जो कुछ; जुहोषि-यज्ञ में अर्पित करना; ददासि उपहार स्वरूप प्रदान करना; यत्-जो; यत्-जो भी; तपस्यसि-तप करते हो; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; तत्-वह सब; कुरूष्व-करो; मत्-मुझको; अप्रणम्-अर्पण के रूप में।
BG 9.27: हे कुन्ती पुत्र! तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, पवित्र यज्ञाग्नि में जो आहुति डालते हो, जो भी दान देते हो, जो भी तपस्या करते हो, यह सब मुझे अर्पित करते हुए करो।
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पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा कि सभी पदार्थ उन्हें अर्पित करने चाहिए। अब वे कहते हैं कि समस्त कर्म भी उन्हें अर्पित करने चाहिए। कोई भी अपने जिन सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करता है, जो भी शाकाहारी भोजन ग्रहण करता है, जो भी पदार्थ सेवन करता है, जो भी वैदिक कर्मकाण्ड करता है, जो भी व्रत या तपस्या करता है, उसे यह ध्यान रखना चाहिए वह मानसिक रूप से भी सभी कार्यों को मुझे समर्पित करते हुए करे।
प्राय लोग भक्ति को अपने दैनिक जीवन से अलग रखते हैं और वे इसे कुछ ऐसा समझते हैं कि यह केवल मंदिर के प्रांगण के भीतर किया जाना कार्य है किन्तु भक्ति को केवल मंदिर के प्रांगण तक सीमित न रखकर अपितु अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में इसमें तल्लीन होना आवश्यक है। नारद मुनि ने भक्ति की इस प्रकार से व्याख्या की है
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।।
(नारद भक्तिदर्शन, सूत्र-19)
"भक्ति का अर्थ अपने समस्त कर्मों को भगवान को अर्पित करना है और उसका एक क्षण भी विस्मरण होने पर परम व्याकुल होना है।" जब कर्म समर्पण भाव और मानसिक रूप से भगवान को सौंप दिए जाते हैं तब उसे अर्पण कहते हैं। इस मनोवृत्ति से सांसारिक जीवन के लौकिक कर्म भगवान की दिव्य सेवा में परिवर्तित हो जाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने भी कर्म के प्रति इस प्रवृत्ति को व्यक्त किया है जब उन्होंने यह उपदेश दिया-"कोई कार्य लौकिक नहीं है। सब कुछ भक्ति और सेवा है।" संत कबीर अपने दोहे में कहते हैं
जहँ जहँ चलुं करूँ परिक्रमा, जो जो करूँ सो सेवा।
जब सोवू करूँ दंडवत, जानें देव न दूजा।।
"मैं भी चलता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ कि मैं भगवान के मंदिर की परिक्रमा कर रहा हूँ। मैं जो भी कर्म करता हूँ उसे मैं भगवान की सेवा के रूप में देखता हूँ जब मैं सोता हूँ तब मैं इस भाव का ध्यान करता हूँ कि मैं भगवान की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ। इस प्रकार मैं भगवान में एकनिष्ठ हो जाता हूँ।" निम्नांकित श्लोक का अभिप्राय समझे बिना मंदिरों में अधिकतर लोग इसका उच्चारण करते हैं।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्याऽऽत्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै नरायणायेति समर्पयेत्तत् ।।
(श्रीमद्भागवतम्-11.2.36)
"कोई भी शरीर से, वाणी से, इन्द्रियों से, बुद्धि से, अहंकार से, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की प्रवृत्तियों से स्वभाववशः जो भी करता है वह सब परम प्रभु नारायण को समर्पित करना चाहिए।" किन्तु यह अर्पण कार्य के अंत में केवल मंत्रों का उच्चारण द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। जैसे कि 'श्रीकृष्ण समर्पण अस्तु' आदि मंत्रों का उच्चारण वैदिक अनुष्ठानों में किया जाता है। इस अर्पण को इस चेतना के साथ क्रियान्वित करना चाहिए कि हम जो भी कार्य करते हैं वे सब भगवान के सुख के लिए हैं। यह कहकर कि सभी कार्य भगवान को अर्पित करने चाहिए, अब श्रीकृष्ण इसके लाभों की व्याख्या करेंगे।